सनातन धर्मशास्त्र के अनुसार विशिष्ट तिथि के दिन ही श्राद्ध क्यों करना आवश्यक ?
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सनातन धर्मशास्त्र के अनुसार विशिष्ट तिथि के दिन ही श्राद्ध क्यों करना आवश्यक ?
हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार मृत व्यक्ति की श्राद्धविधि प्रतिवर्ष करने के लिए कहा गया है । कुछ निरीश्वरवादी इसका विरोध करते हैं । श्राद्ध-विधि न करने पर क्या हो सकता है और जीवन में साधना का महत्त्व, इस लेख द्वारा समझ लेते हैं।
*१. शास्त्रों के अनुसार विशिष्ट दिन विशिष्ट श्राद्धविधि करना आवश्यक होना*
आजकल वर्षश्राद्ध के स्थान पर बारहवें दिन ही सपिंडीकरण श्राद्ध करते हैं । यह उचित नहीं है ।
*बारहवें दिन सपिंडीकरण श्राद्ध करना पर्याप्त न होने के निम्न कारण हैं :*
*अ.* सामान्य जीव द्वारा की जानेवाली प्रत्येक विधि में यदि भाव न हो, तो फलप्राप्ति मात्र 10 प्रतिशत ही होती है ।
*आ.* लिंगदेह, साधना न करते हों, तो उनके सर्व ओर व्याप्त वासनात्मक कोषों द्वारा प्रक्षेपित रज-तमात्मक तरंगों की मात्रा उनकी आसक्ति के अनुपात में परिवर्तित होती रहती है । इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष श्राद्ध कर साधना न करनेवाले जीव को आगे जाने के लिए बल उत्पन्न करवाना, यह पितृऋण चुकानेवाले जीव का प्राथमिक कर्तव्य है ।
*२. शास्त्रों के अनुसार श्राद्धविधि न करने से संभावित हानि*:
*अ.* लिंगदेह एक ही स्थिर कक्षा में अनेक वर्षों तक अटकी रहती है ।
*आ.* अटकी हुई लिंगदेह मांत्रिकों के वश में फंसकर उनकी आज्ञानुसार परिवार के सदस्यों को कष्ट दे सकती है । लिंगदेह आगे न जाकर एक नियत कक्षा में अटके रहने से उनके कोष से प्रक्षेपित परिजनों से संबंधित आसक्तिदर्शक लेन-देन युक्त तरंगों के प्रादुर्भाव में परिवार के सदस्य होते हैं । इसके कारण उन्हें कष्ट होने की आशंका अधिक होती है ।
*३. सनातन धर्मानुसार मृत व्यक्ति का बारहवें दिन श्राद्ध करते हैं । आर्य समाज में चौथे दिन ही श्राद्ध करते हैं और उसके उपरांत श्राद्ध नहीं करते । यह कहां तक उचित है ?*
चौथे दिन श्राद्ध की फलप्राप्ति शून्य प्रतिशत होती है; क्योंकि चौथे दिन मृतदेह पर उसके जीवित होने का संस्कार दृढ रहता है । इसलिए उसके सर्व ओर विद्यमान वासनात्मक कोष 100 प्रतिशत कार्यरत अवस्था में रहता है । ऐसे में श्राद्धादि विधिकर्म करने पर, उससे निर्मित मंत्रशक्ति की तरंगें ग्रहण करने में लिंगदेह पूर्णतः असमर्थ अवस्था में, अर्थात कर्मविधि के आकलन और भान के परे होती है । इसलिए उसके लिए श्राद्ध करने का कोई लाभ नहीं होता ।
इसके विपरीत 12वें दिन लिंगदेह द्वारा पृथ्वी की वातावरण-कक्षा भेदने पर उसकी पृथ्वीतत्त्व से संलग्नता न्यून होकर उसका जड़त्व भी न्यून होता है और उसके सर्व ओर विद्यमान कोषों की संवेदन क्षमता बढ़ती है। इस कारण श्राद्धादि विधिकर्म के स्पंदन ग्रहण करने में वह अग्रसर होने के कारण उस काल में विधि करने से वह अधिक फलदायी प्रमाणित होती है ।
इस प्रकार हिन्दू धर्म में प्रत्येक विषय का कितना गहन विचार किया गया है, यह ज्ञात होता है । प्रत्येक वर्ष श्राद्ध कर उन विशिष्ट लिंगदेहों के सर्व ओर विद्यमान वासनात्मक कोषों का आवरण न्यून करना, उन्हें हल्कापन प्राप्त कराना और मंत्रशक्ति की ऊर्जा से उन्हें गति देना, यह पितृऋण चुकाने का प्रमुख साधन है । सभी लिंगदेह साधना नहीं करतीं, इसलिए श्राद्धादि कर्म कर उन्हें बाह्यऊर्जा के बल पर आगे भेजना पड़ता है; इसी कारण प्रतिवर्ष श्राद्ध करना महत्त्वपूर्ण होता है । नामसाधना करनेवाला जीव स्वयं ही सात्त्विक ऊर्जा के बल पर उत्तरोत्तर गति प्राप्त कर आगे बढ़ता रहता है; इसलिए साधना करने का अनन्य महत्त्व है।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग -2) श्राद्धविधि का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’
आपकी विनम्र
श्रीमती प्राची जुवेकर,
सनातन संस्था
संपर्क – 7985753094