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धनत्रयोदशी और धन्वंतरि जयंती का महत्व !

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सनातन संस्था का लेख !

दिनांक : 18.10.2025

धनत्रयोदशी और धन्वंतरि जयंती का महत्व !

धनत्रयोदशी (धनतेरस) का पर्व आश्विन वद्य त्रयोदशी के दिन मनाया जाता है। दीपावली से जुड़े इस पर्व पर नए स्वर्ण आभूषण खरीदने की प्रथा है। व्यापारी वर्ग भी इस दिन अपने खजाने की पूजा करता है। धनत्रयोदशी अर्थात देवताओं के वैद्य ‘धन्वंतरि देवता’ की जयंती। आइए इस लेख के माध्यम से इस दिन के महत्व को जानें।

अर्थ : जिस धन से जीवन का पोषण सुचारू रूप से चलता है, उसी धन की इस दिन पूजा की जाती है। यहाँ “धन” का अर्थ शुद्ध लक्ष्मी से है। श्रीसूक्त में कहा गया है कि पृथ्वी (वसु), जल, वायु, अग्नि और सूर्य — ये सभी धन के रूप हैं। जिस धन का उपयोग सही और धर्मसंगत कार्यों में होता है, वही सच्ची लक्ष्मी है। अन्यथा दुरुपयोग होने पर वही धन “अलक्ष्मी” बनकर अनर्थ का कारण बनता है।

विशेषताएँ : यह दिन व्यापारियों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है; क्योंकि धन प्राप्ति के लिए श्री लक्ष्मी देवी की पूजा की जाती है। इस दिन श्री लक्ष्मी देवी का तत्व ब्रह्मांड में प्रक्षेपित होता है। इस कारण साधक को लक्ष्मी और नारायण की कृपा प्राप्त करना सुगम होता है। वह कृपा आत्मा पर बनी रहती है। वर्तमान युग में मनुष्य को केवल भौतिक सुख नहीं, बल्कि जीवन-शक्ति और आध्यात्मिक बल की भी आवश्यकता है। इसलिए, यह दिन साधना करने वाले जीव के लिए ‘महापर्वणी’ (महान पर्व) माना जाता है। साधना के लिए अनुकूलता और धन प्राप्ति हेतु, इस दिन धनलक्ष्मी की पूजा की जाती है। शास्त्रों में कहा गया है कि वर्ष भर में कमाए गए धन का 1/6 भाग धर्मकार्य में अर्पित करना चाहिए। ऐसा करने से धन की पवित्रता बनी रहती है और लक्ष्मी का स्थायी वास होता है।

महत्व : इस दिन को स्थानीय भाषा में ‘धनतेरस’ कहा जाता है। व्यापारी इस दिन अपनी तिजोरी और नई बहीखातों का पूजन करते हैं। व्यापारी वर्ग के लिए नया वर्ष दीपावली से दीपावली तक माना जाता है। इस दिन नई वहियाँ (खाते) पूजा कर प्रारंभ की जाती हैं।

धनत्रयोदशी के दिन नया सोना खरीदने की प्रथा है। जिससे घर में वर्ष भर धनलक्ष्मी का वास रहता है। वास्तव में लक्ष्मीपूजन के समय वर्ष भर का आय-व्यय का लेखा-जोखा भी देना होता है। धनत्रयोदशी तक बचा हुआ धन यदि प्रभु कार्य (सत्कार्य) में व्यय किया जाए, तो वह धन लक्ष्मी स्वरूप बनकर स्थायी शुभता देता है। धन का अर्थ केवल पैसा नहीं, बल्कि कड़ी मेहनत, ईमानदारी और परिश्रम से कमाया गया धन है। उस धन का न्यूनतम 1/6 भाग प्रभुकार्य में व्यय करना चाहिए — ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। – परात्पर गुरु पांडे महाराज

परात्पर गुरु पांडे महाराज बताते हैं कि प्राचीन काल में राजा वर्ष के अंत में अपना खजाना सत्पात्रों को दान देकर खाली कर देते थे। इससे उन्हें आत्मसंतोष और धन्यता की अनुभूति होती थी। राजा और जनता के बीच संबंध पारिवारिक स्वरूप के थे। राजा जनता के धन का संरक्षक होता था, मालिक नहीं। इस कारण जनता बिना हिचक के कर (tax) देती थी, और खजाना पुनः भर जाता था। धर्मकार्य में धन के प्रयोग से आत्मबल भी बढ़ता था।

धन्वंतरि जयंती – भगवान धन्वंतरि का जन्म देवताओं और दानवों द्वारा किए गए समुद्रमंथन से हुआ। वे चार भुजाओं वाले हैं — एक हाथ में अमृत कलश, दूसरे में जलू (औषध), तीसरे में शंख, और चौथे में चक्र। इन प्रतीकों से वे रोगों और व्याधियों का नाश करने वाले, अमृत देने वाले वैद्य माने जाते हैं। वैद्य समुदाय इस दिन धन्वंतरि देवता का पूजन करते हैं। वे लोगों को कडुनिंब (नीम) की पत्तियाँ और शक्कर का प्रसाद देते हैं। नीम की उत्पत्ति अमृत से मानी जाती है, और यह धन्वंतरि द्वारा प्रदत्त अमृत तत्व का प्रतीक है। प्रतिदिन पाँच-सात नीम की पत्तियाँ खाने से रोगों से रक्षा होती है — इसलिए इस दिन नीम का प्रसाद अत्यंत शुभ माना गया है। आधुनिक चिकित्सक श्री राम लाडे

यमदीपदान : यमराज प्राण हरने का कार्य करते हैं। मृत्यु तो अटल है, लेकिन अकाल मृत्यु से रक्षा के लिए धनत्रयोदशी के दिन यमदीपदान किया जाता है। इस दिन आटे के दीपक (तेरह दीपक) बनाकर, दक्षिण दिशा की ओर मुख करके घर के बाहर संध्या समय दीप जलाया जाता है। सामान्यतः दीपक दक्षिणमुख नहीं रखा जाता, केवल इस दिन ऐसा करना शुभ माना गया है। तत्पश्चात निम्न मंत्र का जाप करना चाहिए।

“मृत्युना पाशदंडाभ्यां कालेन श्यामयासह ।
त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम ।।”

अर्थ: धनत्रयोदशी को यमराज को किए गए दीपदान से वे प्रसन्न हों और मेरे ऊपर से मृत्यु के पाश और दंड को हटा दें।

यमदीपदान सूर्यास्त के बाद, अर्थात संध्या 6 से 8 बजे के बीच करना श्रेष्ठ माना गया है। बाद का समय गौण भाग है। गौण भाग होने पर भी, उस समय भी यमदीपदान किया जा सकता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से महत्व – इस दिन श्री लक्ष्मी का तत्व पृथ्वी पर अधिक मात्रा में अवतरित होता है। किंतु आजकल लोग केवल नोट, सिक्के या गहनों की पूजा करते हैं, जिससे उन्हें लक्ष्मी की सच्ची कृपा नहीं मिलती। केवल स्थूल धन का पूजन करने वाला व्यक्ति मोह और माया में फँस जाता है और अपने जीवन के सच्चे उद्देश्य — साधना और मोक्ष — को भूल जाता है।

इसलिए इस दिन लक्ष्मी का ध्यान कर शास्त्रसम्मत विधि से पूजा करना ही वास्तविक फलदायक होता है।

संदर्भ: सनातन संस्था की पुस्तक ‘त्योहार, धार्मिक उत्सव और व्रत’

आपकी नम्र,
प्राची जुवेकर
सनातन संस्था
संपर्क -7985753094

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