सूर्य षष्ठी (छठ) पूजा का शास्त्र एवं महत्व
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सनातन संस्था द्वारा संकलित लेख
दिनांक : 25.10.2025
सूर्य षष्ठी (छठ) पूजा का शास्त्र एवं महत्व
लोक आस्था का पर्व – छठ : हमारे देश में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ । मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है । यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है । पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में । चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जानेवाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जानेवाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है । पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फलप्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है । इस पर्व को स्त्री और पुरुष समानरूप से मनाते हैं । लोक आस्था के इस पावन पर्व की महिमा सनातन संस्था के सत्संगों में बतायी गई है ।
छठ पूजा कथा इतिहास – लोकपरंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मैया का संबंध भाई-बहन का है । लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी । त्रेतायुग में भगवान राम जब माता सीता से स्वयंवर करके घर लौटे थे और उनका राज्याभिषेक किया गया, उसके पश्चात उन्होंने पूरे विधान के साथ कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को पूरे परिवार के साथ यह पूजा की थी; तभी से इस पूजा का महत्त्व है । द्वापरयुग में जब पांडव ने अपना सर्वस्व गंवा दिया था, तब द्रौपदी ने इस व्रत का पालन किया । वर्षों तक इसे नियमित करने पर पांडवों को उनका सर्वस्व वापस मिला था ।
इसकी पौराणिक कथा कुछ इस प्रकार है । प्राचीन काल की बात है, एक राजा-रानी थे । उनकी कोई संतान नहीं थी । राजा इससे बहुत दुःखी थे । महर्षि कश्यप उनके राज्य में आए । राजा ने उनकी सेवा की । महर्षि ने आशीर्वाद दिया जिसके प्रभाव से रानी गर्भवती हो गई; परंतु उनकी संतान मृत पैदा हुई जिसके कारण राजा-रानी अत्यंत दुःखी हो गए और दोनों ने आत्महत्या का निर्णय लिया । जैसे ही वे दोनों नदी में कूदने लगे, उन्हें छठी माता ने दर्शन दिए और कहा कि ‘आप मेरी पूजा करें जिससे आपको अवश्य संतान प्राप्ति होगी ।’ राजा-रानी ने विधि-विधान से छठी माता की पूजा की और उन्हें स्वस्थ संतान की प्राप्ति हुई । तब से ही कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को यह पूजा की जाती है ।
छठ पूजा का वैज्ञानिक महत्व – छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है, षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है । उस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें (ultra violet rays) पृथ्वी की सतहपर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र होती हैं । उसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्य इस परंपरा में है । पर्वपालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है । पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिल सकता है ।
सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वीपर आती हैं । सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वीपर पहुंचता है, तो पहले उसे वायुमंडल मिलता है । वायुमंडल में प्रवेश करनेपर उसे आयन मंडल मिलता है । पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है । इस क्रियाद्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है । पृथ्वी की सतहपर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुंच पाता है । सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतहपर पहुंचनेवाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है । अत: सामान्य अवस्था में मनुष्योंपर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पडता, बल्कि उस धूपद्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ ही होता है ।
छठ जैसी खगोलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरोंपर) सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वीपर पुन: सामान्य से अधिक मात्रामें पहुंच जाती हैं । वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय के समय यह और भी सघन हो जाती है । ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरांत आती है । ज्योतिषीय गणनापर आधारित होने के कारण इसका नाम छठ पर्व रखा गया है ।
पवित्रता और श्रद्धा का प्रतीक यह पर्व अधिकाधिक भावपूर्ण रूप से मनाकर सूर्य देवता और छठी माता की कृपा प्राप्त करें ।
छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं ? : यह पर्व चार दिनों का है । भैयादूज के तीसरे दिन से यह आरंभ होता है ।
पहला दिन : नहाय खाय
यह कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को होता है । पहले दिन सेंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूपमें ली जाती है । इस दिन सूर्योदय के पूर्व पवित्र नदियों में स्नान करने के पश्चात ही भोजन करते हैं, जिसमें कद्दू (लौकी) खाने का विशेष महत्त्व पुराणों में है । इस दिन कद्दू (लौकी) के साथ चने की दाल और अरवा चावल खाने का विशेष महत्त्व पुराणों में है ।
दूसरा दिन : खरना :
दूसरे दिन सवेरे से निर्जला उपवास कर सायंकाल को रोटी एवं गुड की खीर बनाकर घर के अन्य लोगों को प्रसाद वितरित कर व्रत करनेवाले स्वयं भी उसे ग्रहण करते हैं ।
तीसरा दिन : डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पण:
इस दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पण करते हैं, प्रात:काल स्नान करके प्रसाद (‘ठेकुआ’) बनाते हैं । इस प्रसाद को बनानेवाले सभी निर्जल रहकर ही बनाते हैं । तदुपरांत बांस या पीतल के सूप में, मौसम में उपलब्ध सभी फलों के साथ ठेकुआ रखकर बांस की बडी सी टोकरी में रख नदी अथवा तालाब पर जाते हैं । वहां व्रती नदी में भगवान सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर घर लौट आते हैं ।
चौथा दिन : सूर्य को अर्घ्य देना :
इस दिन प्रात: चार बजे पुन: नदी पर जाकर उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर घर लौट आते हैं ।
इस पूजा में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है; लहसुन, प्याज वर्ज्य है । जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं ।
संदर्भ : सनातन संस्था का जालस्थल : sanatan.org
नम्र,
प्राची जुवेकर
सनातन संस्था
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