कानून का नहीं, अपितु न्याय का राज्य चाहिए !
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कानून का नहीं, अपितु न्याय का राज्य चाहिए !
*प्रस्तावना :*
‘तारीख पर तारीख’ जैसी देरी की पृष्ठभूमि में न्याय-व्यवस्था की चिंताजनक वास्तविकता को उजागर करने वाली एक गंभीर घटना सामने आई है। 27 वर्षों से अपने मुकदमे का निर्णय न मिलने के कारण श्री नामदेव जाधव ने पुणे न्यायालय की इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली। न्याय-प्रक्रिया पर विश्वास खो चुके एक नागरिक का यह चरम निर्णय न्याय-प्रणाली की कार्यक्षमता पर त्रासदायक और असहज प्रश्न खड़ा करता है।
यह केवल आत्महत्या नहीं है; यह लंबे समय से चल रही न्यायिक देरी, व्यवस्था की उदासीनता और सरकारी निष्क्रियता के कारण हुई एक प्रणालीगत हत्या है। “न्याय में देरी का अर्थ है न्याय न मिलना” — इस कटु सत्य का सजीव उदाहरण है, श्री नामदेव जाधव की मृत्यु।
यह घटना न्याय-प्रणाली में नीतिगत बदलाव की अनिवार्यता और सुधारों की उपेक्षा के गंभीर परिणामों को रेखांकित करती है। आज सवाल केवल यह नहीं है कि “क्या न्याय मिलता है?” बल्कि यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि — न्याय मिलने में कितना समय लगता है, किस कीमत पर मिलता है, और व्यक्ति को किस मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है।
*लंबित मुकदमों का पहाड़ !*
वर्तमान में देशभर के न्यायालयों में लगभग 5.3 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें से अधिकतम अर्थात 4.7 करोड़ मामले जिला और तालुका (निचली) अदालतों में लंबित हैं — वही स्थान जहाँ आम व्यक्ति न्याय के लिए सबसे पहले दरवाज़ा खटखटाता है। चौंकाने वाली बात यह है कि 1.8 लाख से अधिक मामले 30 वर्ष से ज्यादा समय से, और कुछ तो 50 वर्षों से भी अधिक समय से न्याय की प्रतीक्षा में हैं।
*न्यायिक व्यवस्था में देरी के दोषी कौन ?*
*1. वकीलों, गवाहों या सरकारी वकीलों की अनुपस्थिति :*
अक्सर मुकदमों में देरी का मुख्य कारण यह होता है कि आरोपी या वादी पक्ष के वकील, साक्षी या सरकारी वकील अदालत में उपस्थित नहीं होते। कभी-कभी एक ही दिन में कई अदालतों में काम होने के कारण भी तारीख आगे बढ़ा दी जाती है, जिससे सुनवाई टलती जाती है।
2. *पीड़ित का मानसिक व आर्थिक बोझ :* अन्याय झेलने वाले व्यक्ति को अपने अधिकार के लिए वर्षों तक प्रयास करना पड़ता है। उसे बार-बार अदालत में हाजिर होना पड़ता है, जिससे मानसिक और आर्थिक कष्ट होता है। हालाँकि अदालतों को शीघ्र सुनवाई करने का अधिकार है, परंतु मामलों की अधिकता और प्रणाली पर बोझ के कारण देरी टल नहीं पाती।
3. *गिरफ़्तारी या जमानत के मामलों में जल्दबाज़ी :* कभी-कभी गिरफ्तारी या जमानत जैसे मामलों में जल्दबाज़ी दिखाई देती है। न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और ईमानदारी बनाए रखने के लिए पुलिस, वकील और न्यायालय के कर्मचारियों में ईमानदार समन्वय आवश्यक है।
4. *न्यायालयों की निर्धारित छुट्टियाँ :* अदालतों को कुछ निश्चित छुट्टियाँ दी जाती हैं, जो परंपरा से अब तक जारी हैं। परंतु बढ़ते मामलों को देखते हुए छुट्टियों का पुनर्विचार कर न्याय-प्रक्रिया को और अधिक गतिशील बनाने की आवश्यकता है।
5. *विभिन्न अदालतों में विरोधाभासी निर्णय :* एक ही केस में निचली अदालत दोष सिद्ध करती है, ऊपरी अदालत निर्दोष बताती है, और फिर सर्वोच्च अदालत में वही व्यक्ति फिर दोषी ठहराया जाता है। एक ही साक्ष्य, वही गवाह — लेकिन जज बदलते ही निर्णय बदल जाता है, ऐसा क्यों?
*न्यायिक प्रणाली पर गंभीर प्रश्न !*
ये घटनाएँ केवल व्यक्तिगत मानसिक पीड़ा का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि भारत की न्यायिक प्रणाली पर भारी बोझ, तकनीकी देरी, और मानवीय संवेदनाओं से रहित प्रक्रिया का प्रतिबिंब हैं। सुनवाई के अपूर्ण कार्यक्रम, कर्मचारियों की कमी और लम्बी प्रक्रिया — ये सभी ऐसी त्रासदियों के पीछे का साझा कारण हैं।
उदाहरण :
1.अतुल सुभाष (34 वर्ष) – एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने वैवाहिक और न्यायालयीन तनाव के कारण आत्महत्या कर ली। उनके द्वारा छोड़े गए 24-पृष्ठों के सुसाइड नोट में पारिवारिक अदालत के कामकाज और संबंधित व्यक्तियों की पक्षपातपूर्ण भूमिका पर गंभीर आरोप लगाए गए थे। उन्होंने लिखा था – “यदि मुझे न्याय नहीं मिला, तो मेरी अस्थियाँ न्यायालय के बाहर के नाले में डाल देना।”
2. शिवाजीनगर न्यायालय में दूसरी घटना (15 अक्टूबर 2025) – 61 वर्षीय वादी, जिनका संपत्ति विवाद 1997 से लंबित था, उन्होंने अदालत में ही आत्महत्या कर ली।उनकी चिट्ठी में साफ लिखा था — “न्याय नहीं मिल रहा है।”
*“न्याय नहीं, केवल निर्णय मिलते हैं”*
विक्रम भावे ने कहा था — “न्याय नहीं मिलता, केवल निर्णय मिलते हैं।” यह वाक्य उनके निजी अनुभव पर आधारित था। दाभोलकर हत्याकांड में आरोपों से निर्दोष मुक्त होने के बाद उन्होंने न्याय व्यवस्था की त्रुटियों पर खुलकर चर्चा की थी।
अपने भाषण में उन्होंने बताया कि उन पर कोई अपराध सिद्ध न होने पर भी उन्हें दो वर्षों से अधिक समय तक जेल में रहना पड़ा। इस दौरान उनके पिता का निधन हुआ, तब भी वे अंतिम संस्कार में सम्मिलित नहीं हो सके। उन्होंने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा :–“मेरे केस का निर्णय तो आया, पर मुझे न्याय नहीं मिला।” इस हानि की भरपाई कौन करेगा? न्याय न मिलने से किसी व्यक्ति को जो हानि होती है चाहे वह मानसिक, सामाजिक या आर्थिक हो — उसकी भरपाई कौन करेगा?
यदि न्याय में देरी या अन्याय के कारण कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो उसके परिवार का क्या? भारत में न्याय मिलने में हुई देरी या गलत निर्णयों से हुई क्षति के मुआवजे का कानूनी प्रावधान अपर्याप्त है।
15 जुलाई 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि —“गलत गिरफ्तारी और लंबी कैद के लिए मुआवजा देने वाला एक स्वतंत्र कानून तुरंत बनाया जाना चाहिए।” क्योंकि ऐसे मामलों में व्यक्ति का जीवन, करियर और प्रतिष्ठा – तीनों नष्ट हो जाते हैं।
आत्महत्या की घटनाओं में परिवार की स्थिति
जब न्याय में देरी या अन्याय के कारण कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो उसके परिवार के लिए मुआवजे की कोई ठोस कानूनी व्यवस्था नहीं है। भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (आत्महत्या के लिए प्रेरित करना) के तहत यदि किसी पर आरोप सिद्ध होता है, तो न्यायालय कुछ हद तक पीड़ित परिवार को नुकसान-भरपाई दे सकता है; लेकिन यह प्रक्रिया बहुत कठिन और लंबी होती है।
*कानूनी सुधारों की आवश्यकता*
देशभर की अदालतों में 5 करोड़ से अधिक लंबित मुकदमे, न्यायाधीशों की अपर्याप्त संख्या, और न्यायिक प्रक्रिया के तकनीकी आधुनिकीकरण की कमी — इन सबने मिलकर न्याय प्रणाली की गति और परिणामकारकता को ठप कर दिया है। लोकतंत्र की असली शक्ति न्याय प्रणाली में निहित होती है; परंतु जब न्याय समय पर नहीं मिलता, तो वही शक्ति प्रश्नांकित हो जाती है। अब न्याय में देरी केवल प्रशासनिक समस्या नहीं, बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक संकट बन चुकी है।
*विशेषज्ञों की राय*
वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए न्याय विशेषज्ञों का कहना है कि —
गलत जांच, अनुचित गिरफ्तारी या अन्यायपूर्ण निर्णय से मानसिक व आर्थिक क्षति झेलने वालों के लिए एक विशेष कानून बनाया जाए —“Wrongful Justice Compensation Act” (अन्यायपूर्ण न्याय मुआवजा अधिनियम)।
इसमें निम्न बातें अंतर्भूत हों —
* पीड़ित के परिवार के पुनर्वास हेतु विशेष कोष (Rehabilitation Fund) बने।
* मानसिक उपचार व परामर्श सहायता (Psychological Support) उपलब्ध हो।
* आर्थिक सहायता का कानूनी अधिकार मिले।
* केंद्र व राज्य स्तर पर स्वतंत्र “न्याय-हानि निवारण प्राधिकरण” (Justice Loss Redressal Authority) स्थापित किया जाए।
*आज न्याय का नहीं, बल्कि कानून का राज्य है !*
कई मामलों में तुरंत न्याय दिया जा सकता है, किन्तु तारीख पर तारीख मिलती रहती है। कई बार व्यक्ति कौन है, इस पर निर्भर करता है कि फैसला कैसा आएगा। हिंदुत्वनिष्ठ डॉ. वीरेंद्रसिंह तावडे, श्री अमोल काले और शरद कलसकर को जमानत दी गई, न्यायाधीशों ने कहा था — “जमानत नियम है, जेल अपवाद।” फिर भी कई मामलों में, साक्ष्य न होने पर भी लोगों को वर्षों तक जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है।
दाभोलकर प्रकरण में, साक्ष्य के अभाव में भी सवाल उठे कि “क्या किसी को केवल सजा देने के लिए सजा दी गई। ” सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है – “लोगों को यह अनुभव होना चाहिए कि उन्हें न्याय मिला है। न्याय देते समय यह लगना चाहिए कि वास्तव में न्याय दिया गया है।” लेकिन आज स्थिति ऐसी नहीं है। आज केवल निर्णय दिए जाते हैं — जिनसे न तो बचाव पक्ष संतुष्ट होता है, न ही वादी पक्ष। इसलिए प्रश्न उठता है – “क्या वास्तव में न्याय मिल रहा है?”
आज देश में न्याय का नहीं, अपितु कानून का शासन है। कानून तो इसलिए बनाए गए थे कि लोगों को न्याय मिले; परंतु आज लोग न्याय पाने के स्थान पर उल्टा कष्ट भोग रहे हैं। यदि ऐसे “कानूनों के आधार” पर न्याय दिया जा रहा है, तो यह विचार करना आवश्यक है कि — “क्या यह वास्तव में न्यायदान है?”
*न्याय को लक्ष्य नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के रूप में देखा जाना चाहिए !*
न्यायालयों में प्रविष्ट मामलों के निर्णय में हो रही देरी अब आम जनता के लिए एक जटिल और पीड़ादायक समस्या बन चुकी है।
यदि भारत को भविष्य में विश्व की महासत्ता बनना है, तो इस समस्या पर गंभीर और ठोस विचार आवश्यक है। दिन-प्रतिदिन बढ़ती और उलझती जा रही इस समस्या के लिए सक्षम एवं निर्णायक उपाय किए जाने चाहिए। समय पर और उचित न्याय पाना जनता का मूलभूत अधिकार है। आज भारत में “न्याय में देरी” व्यक्ति के जीवन को नष्ट करनेवाली वास्तविकता बन गई है। न्याय को यदि केवल एक ध्येय (लक्ष्य) न मानकर एक जिम्मेदारी के रूप में देखा जाए, तो ही श्री नामदेव जाधव या अतुल सुभाष जैसे लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद उनके परिवारों को वास्तविक सांत्वना और न्याय मिल सकेगा।
निष्कर्ष :
आज देश को कानून का नहीं, बल्कि न्याय का राज्य चाहिए। ऐसा न्याय, जो समय पर मिले, पारदर्शी हो, और सामान्य नागरिक के विश्वास को पुनः स्थापित करे। कानूनी प्रक्रिया का उद्देश्य केवल “निर्णय देना” नहीं, अपितु “न्याय देना” होना चाहिए।
जब तक यह मूलभूत परिवर्तन नहीं होता, तब तक “तारीख पर तारीख” का सिलसिला, आत्महत्याओं की घटनाएँ और न्यायिक व्यवस्था पर जनता का घटता विश्वास ऐसे ही चलता रहेगा।
विनम्र
सुनील घनवट
राज्य संघटक, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़
हिंदू जनजागृति समिति
